فرضیهها 5
روش انجام تحقیق.. 6
فصل اول: کلیات و مفاهیم. 7
1-1. تعاریف و اصطلاحات.. 8
1-1-1. تفسیر در معنای لغوی.. 8
1-1-2. تفسیر در معنای اصطلاحی.. 8
1-1-3. علم کلام. 9
1-1-3-1. تاریخ پیدایش علم کلام. 9
1-1-4. مکتب معتزله. 10
1-1-4-1. اصل توحید. 11
1-1-4-2. اصل عدل.. 11
1-1-4-3. اصل وعد و وعید (معاد) 11
1-1-4-4. اصل منزلة بین المنزلتین.. 12
1-1-4-5. اصل امر به معروف و نهی از منکر. 12
1-1-4-6. امامت و نبوت از منظر معتزله، براساس گزارش شیخ مفید 12
1-1-5. مکتب اشاعره 13
1-1-5-1. اندیشههای اشاعره 14
1-1-5-1-1. قدیم یا حادث بودن قرآن از منظر اشاعره 14
1-1-6. فرقۀ مرجئه. 15
1-1-7. فرقۀ مشبهه. 16
1-1-8. فرقۀ جبریه. 17
1-1-9. فرقۀ تناسخیه. 18
1-1-10. فرقۀ حشویه. 18
1-1-11. فرقۀ خوارج. 18
1-1-12. فرقۀ زیدیه. 19
۱-1-13. اصحاب المعارف.. 19
1-1-14.مهمترین تفاسیر کلامی ………………………………………………………………………….20
فصل دوم: طبرسی و تفسیر. 21
مقدمه. 22
2-1. انواع روشهای تفسیری.. 22
2-1-1. تفسیر مأثور 23
2-1-2. تفسیر عقلی ـ اجتهادی.. 25
2-2. معرفی طبرسی.. 27
2-2-1. زندگینامه طبرسی.. 27
2-2-2. معرفی تفسیر مجمع البیان.. 30
2-2-2-1. بررسی مقدمه تفسیر. 31
2-2-2-1-1. تعداد آیات قرآن و فایده دانستن آنها 31
2-2-2-1-2. ذکر اسامی قاریان مشهور شهرها و راویان آنها 31
2-2-2-1-3. تفسیر و تأویل و معنی آیات قرآن.. 31
2-2-2-1-4. نامهای قرآن و معانی آنها 32
2-2-2-1-5. علوم قرآن.. 32
2-2-2-1-6. ذکر برخی از احادیث مشهور در فضیلت قرآن و اهل آن 32
2-2-2-1-7. ذکر آنچه برای قاری قرآن مستحب است از نیکو خواندن لفظ و تزیین صوت هنگام قرائت قرآن 32
2-2-2-2. مبانی تفسیری طبرسی در مجمع البیان.. 32
2-2-2-2-1. قابل فهم بودن قرآن.. 32
2-2-2-2-2. معیارهای فهم قرآن.. 33
2-2-2-2-3. علوم مورد نیاز مفسر. 33
2-2-2-2-4. مصونیت قرآن از تحریف… 33
2-2-2-2-5. قرآن، معجزۀ جاودانه پیامبر(ص) 33
2-2-2-2-6. روش تنظیم مطالب مجمع البیان.. 34
2-2-2-2-7. منابع مورد استناد در مجمع البیان.. 35
2-2-2-2-۸. مجمع البیان در گفتار عالمان.. 36
فصل سوم: جایگاه کلام شیعه در تفسیر مجمع البیان.. 38
مقدمه. 39
3-1. بخش اول: جایگاه توحید در مجمع البیان.. 41
مقدمه. 41
3-1-1. بایستگی شناخت و معرفت خدا 41
3-1-2. اثبات صانع. 41
3-1-2-1. حرکت و سکون موجودات علامت نیاز به خالق.. 42
3-1-2-2. حدوث اجسام. 42
3-1-2-3. بی شریک بودن خدا 42
3-1-2-4. برهان تمانع. 42
3-1-3. صفات ثبوتیه. 43
3-1-3-1. اسماء و صفات.. 43
3-1-3-2. قدرت خدا 44
3-1-3-2-۱. اشتمال قدرت الهی بر هر چیز. 44
3-1-3-3. علم الهی.. 45
3-1-3-3-1. آگاهی از سرّ آسمانها و زمین.. 45
3-1-3-3-2. علم به همۀ معلومات.. 45
3-1-3-3-3. عالم به نهان و آشکار 45
3-1-3-3-4. سمیع بودن خداوند. 46
3-1-3-4. اراده خداوند. 46
3-1-3-4-1. ارادۀ تام خداوند بر هستی.. 46
3-1-3-5. متکلم بودن خداوند. 47
3-1-3-6. خدای واحد. 47
3-1-4. صفات فعل.. 47
3-1-4-1. حکیم بودن.. 48
3-1-4-2. حی بودن.. 48
3-1-4-3. خالق بودن.. 48
3-1-4-3-1. خلقت آسمانها و زمین نشانی برای خردمندان.. 48
3-1-4-3-2. خلقت جهان، دلیلی بر وجود خدا 49
3-1-5. صفات سلبیه. 49
3-1-5-1. تنزیه و تسبیح خدا 49
3-1-5-2. علوّ خداوند. 50
3-1-5-3. قدّوس بودن.. 50
3-1-5-4. نفی رؤیت و جسمانیت برای خدا 50
3-1-5-5. بی مکان بودن خداوند. 51
3-2. بخش دوم: جایگاه معاد در مجمع البیان.. 53
مقدمه. 53
3-2-1. تعبیرات کلی قرآن دربارۀ رستاخیز. 53
3-2-1-1. قیامت… 53
3-2-1-2. نشر. 53
3-2-1-3. معاد. 54
3-2-2. نامهای قیامت… 54
3-2-2-1. یَومُ الخُلود. 54
3-2-2-2. یومٌ ثَقیل.. 54
3-2-2-3. یَومُ مَشهود. 54
3-2-2-4. یَومُ الوَعید. 55
3-2-2-5. یَومُ الحَسرَة 55
3-2-2-۶. یَومَ تُبلی السَّرائِر. 55
3-2-3. امکان معاد و منطق مخالفان.. 55
3-2-۴. دلائل امکان معاد. 57
3-2-5. معاد جسمانی.. 58
3-2-6. دروازۀ عالم بقا 60
3-2-6-1. مرگ… 60
3-2-6-2. برزخ. 61
3-2-7. محکمۀ عدل الهی.. 61
3-2-8. فرجام معاد. 62
3-2-8-1. بهشت و بهشتیان.. 63
3-2-8-1-1. ایمان و عمل صالح.. 63
3-2-8-1-2. تقوا 63
3-2-8-1-3. صبر در برابر سختیها 63
3-2-8-1-4. اهتمام به نماز 64
3-2-8-2. نعمتهای بهشت… 64
3-2-8-2-1. سایههای لذتبخش…. 64
3-2-8-2-2. غذاهای بهشتی.. 65
3-2-8-2-3. لباسهای بهشتی.. 65
3-2-8-2-4. همسران بهشتی.. 65
3-2-8-2-5. امنیت و زوال خوف.. 66
3-2-8-2-6. برخورد محبتآمیز. 66
3-2-8-2-7. احساس خشنودی خدا 66
3-2-8-3. دوزخ و دوزخیان.. 67
3-2-8-3-1. کافران و منافقان.. 67
3-2-8-3-2. ممانعت مردم از راه یافتن به حق.. 67
3-2-8-3-3. استهزاء آیات الهی.. 67
3-2-8-3-4. ظلم و بیدادگری.. 68
3-2-8-4. عذابهای جسمانی و روحانی دوزخیان.. 68
3-2-8-5. جاودانگی کیفر. 69
3-2-8-6. شفاعت… 70
3-2-8-6-1. نفی شفاعت… 70
3-2-8-6-2. اذن شفاعت منوط به اذن خدا 70
3-2-8-6-3. شرایط شفاعتکننده و شفاعت شونده 71
3-3. بخش سوم: جایگاه نبوّت در مجمع البیان.. 72
3-3-1. فلسفه بعثت پیامبران.. 72
3-3-1-1. رهایی از ظلمت… 72
3-3-1-2. بشارت و انذار 72
3-3-1-3. تعلیم و تربیت… 73
3-3-2. ویژگیهای عمومی پیامبران.. 73
3-3-2-1. صدق گفتار 73
3-3-2-2. امانت… 73
3-3-2-3. نیکوکاری و احسان.. 74
3-3-2-4. توکل مطلق بر خداوند. 74
3-3-2-5. علاقه و دلسوزی فوق العاده 74
3-3-3. عصمت مهمترین شرط رسالت… 75
3-3-3. تنزیه انبیا 76
3-3-3-1. آدم. 76
3-3-3-2. ابراهیم. 77
3-3-3-3. موسی.. 77
3-3-4. طرق شناخت پیامبران.. 78
3-3-4-1. رابطۀ اعجاز و نبوّت.. 78
3-3-4-2. تفاوت سحر با معجزه 79
3-3-4-3. وحی (چگونگی ارتباط با عالم غیب) 80
3-3-5. دلایل صدق ادعای پیامبر اسلام. 81
3-3-5-1. قرآن، معجزه پایدار پیامبر. 81
3-3-5-2. شاخههای اعجاز قرآن.. 82
3-3-5-2-1. فصاحت و بلاغت… 82
3-3-5-2-2. اعجاز قرآن از نظر علوم روز 82
3-3-5-2-3. اعجاز قرآن از نظر اخبار غیبی.. 83
3-3-5-2-4. اعجاز قرآن از نظر عدم تضاد و اختلاف.. 84
3-3-5-۳. گردآوری قراین یک راه مطمئن دیگر. 84
3-3-6. خاتمیت در قرآن.. 85
3-4. بخش چهارم: جایگاه عدل در مجمع البیان.. 85
3-4-1. برسی واژههای ظلم، عدل و قسط.. 86
3-4-2. خداوند به هیچکس ستم نمیکند. 86
3-4-3. یکسان نبودن خوب و بد. 88
3-4-4. مشکل حوادث دردناک زندگی بشر. 88
3-4-5. پاسخ تفصیلی به پدیدههای ناگوار 88
3-4-5-1. فلسفه تفاوتها 88
3-4-5-2. مشکلات خودساخته. 89
3-4-5-3. مصائبی که مجازات الهی است… 90
3-4-5-4. مصیبت بیدادگر. 90
3-4-5-5. آزمون الهی بهوسیلۀ مشکلات.. 91
3-4-5-6. شناخت نعمتها در کنار مصائب… 92
3-5. بخش پنجم: جایگاه امامت در مجمع البیان.. 93
3-5-1. امامت در قرآن.. 93
3-5-2. ولایت و امامت عامه در قرآن.. 94
3-5-2-1. آیۀ انذار و هدایت… 94
3-5-2-2. آیۀ صادقین.. 94
3-5-2-3. آیۀ اولی الأمر. 95
3-5-3. شروط و صفات ویژۀ امام. 95
3-5-3-1. علم امام. 96
3-5-3-2. معصوم بودن امام. 96
3-5-3-3. ولایت تکوینی پیامبران و امامان.. 97
3-5-4. ولایت و امامت خاصه. 98
3-5-4-1. آیۀ تبلیغ. 98
3-5-4-2. آیۀ ولایت… 98
3-5-4-3. آیۀ لیلة المبیت… 99
3-5-4-4. آیۀ نیکوترین مؤمنان.. 99
3-5-4-5. آیۀ بینه و شاهد. 99
3-5-4-6. آیۀ انذار 100
3-5-4-7. آیۀ گوشهای شنوا 100
3-5-4-8. آیۀ محبت… 101
3-5-5. امام مهدی علیه السلام. 101
نتیجهگیری.. 103
فصل چهارم: گونههای مواجهۀ کلامی طبرسی در مجمع البیان با برخی آراء کلامی.. 104
مقدمه. 105
4-1. بخش اول: رویکردهای طبرسی به معتزله. 105
4-1-1. رویکرد توضیحی.. 105
4-1-1-1. سکونت و خروج آدم و حوا از بهشت… 105
4-1-1-2. شفاعت قابل قبول.. 106
4-1-1-3. اسلام و ایمان.. 106
4-1-1-4. خارق عادت از غیر از نبی.. 106
4-1-1-5. مصیبت و گناه 106
4-1-1-6. معنای ظلم. 107
4-1-1-7. خلق مخلوقات، باواسطه یا بیواسطه. 107
4-1-1-8. تعبیر خواب.. 107
4-1-1-9. حاضر شدن اعمال در قیامت… 108
4-1-1-10. سخن عیسی در گهواره 108
4-1-1-11. حقیقتِ روح. 108
4-1-1-12. غیر قابل رؤیت بودن شیطان.. 108
4-1-1-13. ترک اولی یا گناه کردن آدم. 108
4-1-1-14. زندگی ابدی.. 109
4-1-1-15. نادیدنی بودن خدا 109
4-1-1-16. عدم سختگیری خداوند بر بندگان.. 109
4-1-1-17. تأخیر عذاب تا وقت معیّن.. 109
4-1-1-18. نبوت عیسی.. 109
4-1-1-19. اجر دنیوی.. 109
4-1-1-20. چهرههای متنعّم در قیامت… 110
4-1-1-21. صفات مخصوص خدا 110
4-1-1- 22. رویگردانی از آیین ابراهیم. 110
4-1-1-23. دروغ گفتن در آخرت.. 110
4-1-2. رویکرد تقریبگرایانه. 110
4-1-2-1. معنای اسلام. 111
4-1-2-2. بهشتی به پهنای آسمان و زمین.. 111
4-1-2-3. زنگار قلب… 111
4-1-2-4. پیروی از دین خدا 111
4-1-2-5. فرشته یا جن بودن ابلیس…. 111
4-1-2-6. انتظار کرامت الهی.. 112
4-1-3. رویکرد نقادانه. 112
4-1-3-1. رجعت… 112
4-1-3-2. ایمان، معرفت خدا 112
4-1-3-3. پذیرش توبه. 113
4-1-3-4. آمرزش همۀ گناهان.. 113
4-1-3-5. افضل نبودن فرشته بر نبی.. 113
4-1-3-6. عذاب فاسق.. 114
4-1-3-7. مؤمنان واقعی.. 115
4-1-3-8. عدم زیادت علم خدا بر ذاتش…. 115
4-1-3-9. جواز بخشش همۀ معاصی.. 115
4-1-3-10. تجاوز از حدود الهی، خلود در آتش…. 115
4-1-3-11. آگاهی از غیب… 116
4-1-3-12. طاعت فاسق.. 116
4-1-3-13. خبر دادن خداوند در خلقت موجودات.. 116
4-1-3-14. جواز تقیه بر امام. 117
4-1-3-15. مکلّف بودن آدم و حوا 117
4-1-3-16. سجده ملائکه به آدم. 117
4-1-3-17. حکم سلیمان.. 117
4-1-3-18. زمان مرگ انسانها 118
4-1-4. رویکرد طبرسی به سران معتزله. 118
۴-۲. بخش دوم: انتقاد طبرسی بر جبرگرایان.. 118
4-2-1. نسبت گمراهی به خدا 119
4-2-2. سجده به آدم. 119
4-2-3. تأثیر اختیار در افعال و اقوال.. 119
4-2-4. عدم مسئولیت در قبال کار دیگران.. 119
4-2-5. پشیمانی از کردار و اعمال.. 120
4-2-6. عدم انتساب زشتیها به خداوند. 120
4-2-7. تبدیل نعمت به کفر. 120
4-2-8. تکلیف در حد توانایی.. 120
4-2-9. نیل نفس انسان به پاداش عملکرد خویش…. 120
4-2-10. شتابکنندگان در کفر. 121
4-2-11. عدم ظلم خدا به بندگان.. 121
4-2-12. شیطان، عامل گمراهی.. 121
4-2-13. ایمان برای همه. 121
4-2-14. جعل احکام از طرف کفار 121
4-2-15. عدم دشنام به بتها 122
4-2-16. عدم مجازات کسی به جای دیگری.. 122
4-2-17. کیفر رفتار فرعونیان به قحطی.. 122
4-2-18. خواست خدا بر ایمان اجباری همه مردم. 122
4-2-19. خداوند، خالق کل هستی.. 123
4-2-20. فرستادن پیامبر، مایۀ رحمت خلق جهان.. 123
4-2-21. کفران نعمت… 123
4-2-22. روشن ترین دلیل بر فساد قول مجبره 123
4-2-23. مؤمنان برگزیده 124
4-2-24. ایمان فعل خداست یا بنده؟. 124
4-3. بخش سوم: انتقاد طبرسی به اصحاب الرّموز 125
4-4. بخش چهارم: انتقاد طبرسی به اصحاب المعارف.. 125
4-4-1. گمراهی برخی انسانها 125
4-4-2. نفی علم از برخی انسانها 125
4-5. بخش پنجم: انتقاد طبرسی به تناسخیه. 126
4-5-1. پیمان خداوند از بنی آدم. 126
4-5-2. مکلف بودن حیوانات.. 126
4-6. بخش ششم: انتقاد طبرسی به حشویه. 126
4-7. بخش هفتم: برسی نظرات طبرسی در مورد خوارج. 127
4-7-1. پیروان متشابهات قرآن.. 127
4-7-2. روسیاهان در قیامت… 127
4-7-3. نقد رأی خوارج دربارۀ حکم رجم. 127
۴-7-4. جزای سارق.. 127
4-7-5. تعذیب اطفال مشرکین.. 128
4-7-6. زیانکارترین مردم. 128
4-7-۷. مرتکب کبیره 128
4-7-۸. ضرورت کافر بودن غیر مؤمن.. 128
4-7-۹. دخول آتش فقط برای کافران.. 129
4-8. بخش هشتم: مواجهه طبرسی با برخی آراء زیدیه. 129
4-8-1. آرای فقهی زیدیه. 129
4-8-2. تأویلی نیکو از زیدیه. 129
4-9. بخش نهم: انتقاد طبرسی به مرجئه. 130
4-9-1. ایمان و عمل قبل از توبه. 130
نتیجه گیری.. 131
بررسی فرضیات پایان نامه. 132
نتیجه پایانی…………………..133
فهرست منابع. 134
چکیده:
بخش قابل توجهی از آیات قرآن، آیاتی است که موضوعات اعتقادی و معارفی را دربرمیگیرد. پرداختن به این مهم در قرآن از آنجا نشئت میگیرد که عقیده، مبنای اخلاق و عمل آدمی است. واکاوی جلوههای مهم آیات قرآنیِ معطوفِ به عقیدۀ انسانی، همواره مورد اهتمام مفسران قرآن بوده است. مجمع البیانِ فضل بن حسن طبرسی که تفسیری است جامع و اجتهادی و دارای اعتبار در میان عالمان و قرآنپژوهان مسلمان، از زمرۀ این کوششها بهشمار میرود. بر این اساس میتوان گفت: موضوعات عقاید و کلام، در سایهسار وحیِ الهی، جلوۀ مهم و برجستهای در این تفسیر دارد. طبرسی در مجمع البیان بهمثابۀ مفسری جامعنگر مطرح است که پس از شیخ طوسی و تفسیر تبیان او، با آراء و دیدگاههای عالمان و مفسران متکلم مسلمان، ذیل آیات مربوط مواجه شده و فعالانه برخورد کرده است. این مواجهه گونه های متفاوت دارد. از توضیح و تبیین آن آرا گرفته تا موافقت یا تخطئۀ این انگارهها. از جمله دستاوردهای این پژوهش آن است که طبرسی با توجه به مبانی تفسیری خود و با عنایت به دیدگاههای کلامی شیعه تلاش کرده تا مبانی کلام شیعه را تحکیم بخشد. دیگر آنکه در مواجهه با قیاس مفسران برخی فرقههای مسلمان، دیدگاهش با دیدگاههای گروههایی مانند معتزله، قرابت بیشتری دارد. تخطئۀ تفسیر جبرگرایان و حشویه نسبت به سایر فرقهها، در این تفسیر برجستهتر می کند.
مقدمه
بیش از چهارده قرن پیش، آخرین کتاب آسمانی- قرآن کریم- بر آخرین فرستادۀ الهی- حضرت ختمی مرتبت- رسول گرامی اسلام، بهمنظور هدایت انسانها بهسوی کمال و سعادت جاودانی آنها نازل شد. وحینامۀ قرآن، متضمن معارف بلند و دستورالعملهایی است که فهم و التزام به آنها، زمینۀ دستیابی به این سعادت همیشگی را هموار میسازد. برای رسیدن به این معارف بلند و دستورالعملهای آن، باید این کتاب را بهخوبی شناخت و در زوایای آن کندوکاو و تعمق نمود تا به ژرفا و درونمایۀ آن دست یافت. این مهم با تدبّر در آیات الهی فراهم میشود. قرآن کریم در اهمیت تدبر و اندیشیدن در آیاتش سخنها گفته و همگان را به تفکر در آن تشویق کرده است. خداوند قرآن را کتابی مبارک توصیف میکند و به همگان دستور اندیشیدن به آن را میدهد. (ر.ک: ص/ 29) اما گذشته از اینکه قرآن به زبان مردم نازل شده و کتابی مبین و آشکار است، در جایی دیگر به پیامبر گرامی(ص) دستور داده تا قرآن را شرح و توضیح دهد. (ر.ک: نحل/ 44) زیرا فهمیدن ظاهر معانی یک کلام غیر از تفسیر آن است. هرکس که به زبان عربی آشنایی داشته باشد، ظاهر معانی را درمییابد. اما تفسیر محتوایی و عمیق آن را هم می فهمد؟
تفسیر، حکایت دیگری است که هیچکس جز با تلاش و کوشش روشمند و با اتکا به منابع و مصادر فهم قرآن، نمیتواند به ژرفای آن دست پیدا کند. افزون بر این، همچنین باید گفت: اگر کسی به قرآن مراجعه کند، درمییابد که قرآن ویژگیهای مخصوص بهخود را دارد که همواره ضرورت تفسیر را در هر عصر و زمان ایجاب میکند. از جمله آنکه طبق گفتار حضرت علی(ع) دارای معانی گوناگون و ژرفناک و فراخناک است: «إنَّ القُرآنَ ظاهِرُهُ أنیقٌ و باطِنُهُ عَمیقٌ» (نهج البلاغه، خطبۀ 18) نکتۀ دیگر آنکه این کتاب آسمانی در بیان عقاید و احکام دین، مطالب را فشرده و با اشاره بیان کرده که حتماً نیاز به تفسیر دارد. نکتۀ مهم دیگری نیز اینجا باید افزود و آن اینکه، نزول قرآن در یک فرایند 20 یا 23 ساله صورت گرفته و فراز و فرودهایی را پشت سر نهاده است. لذا فهم بسیاری از مفاهیم و مقولات قرآنی از رهگذر کنار هم نهادن آنها و کشف انسجام معنایی میسر است و این مهم جز با تفسیر صحیح و روشمند حاصل نمیشود.
قرآن کتابی است سرشار از معانی بلند و الفاظ نامحدود که نکات غیبی آن با الفاظ مادی بشری و در قالب سخنان متعارف ریخته شده است. برای فهم معانی آن حتماً به طی مقدمات و توضیح و تفسیر نیازمندیم. مفسران روشها و اسلوبهای استنباط معانی آیات را از زوایا و دیدگاههای مختلف مورد مطالعه قرار دادهاند. یکی از گرایشهای مهم در رشتۀ تفسیر قرآن که از آغاز مورد توجه مفسران و قرآنپژوهان قرار گرفته، رویکرد کلامی است. در این شیوه، معمولاً مفسران برای دفاع از عقاید موافقان یا دفع شبهات مخالفان، از آیات قرآن استفاده کرده و به آنها استناد میکنند. از طرفی، این واقعیت را نمیتوان نادیده گرفت که مفسر قرآن، خود، پیرو یکی از مذاهب اسلامی است و در اصول دینی و و فروع فقهی، نظریاتی دارد که دفاع از آنها را ضروری میشمارد. بهطور طبیعی، به هنگام تفسیر مفسر میکوشد که از عقاید و دیدگاههای خود دفاع کرده یا
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